वो पुराना घर आज भी डरावना लगता है,
दीवारों के रंग, उसकी छाया और भी धुंदली पड़ गयी हैं,
फिर भी कीवाड़ों की ओर नज़रें गड़ाए बैठा है.
आँगन की मट्टी से पैरों के निशाँ गायब हो गए,
फूल पत्ते भी सारे मुरझा के सो गए.
कोई नहीं है अब जो उसके अन्दर झांके,
वो पुराना घर शायद अब भी किसी के आने की आस लगाये बैठा है...
जैसे अतीत के हादसों को अब भी छुपाये बैठा है.
दीवारों के रंग, उसकी छाया और भी धुंदली पड़ गयी हैं,
फिर भी कीवाड़ों की ओर नज़रें गड़ाए बैठा है.
आँगन की मट्टी से पैरों के निशाँ गायब हो गए,
फूल पत्ते भी सारे मुरझा के सो गए.
कोई नहीं है अब जो उसके अन्दर झांके,
वो पुराना घर शायद अब भी किसी के आने की आस लगाये बैठा है...
Awww man...
ReplyDeleteYour poems portray ur inner self....Am speechless!!!!
Bahut sundar likha hai......
ReplyDeleteDhanyawaad...
ReplyDelete