Monday, November 4, 2013

हर पल कल कल, अकेला हूँ मैं...


हर पल कल कल 

अकेला हूँ मैं
झर झर हाला 
बहाता हूँ मैं 
कथन मनन भरम से ऊपर 
अपनी मूरत बनाता हूँ मैं 
तोड़ता उसको बारम्बार 
खोया खुद को बारम्बार 
ज्वाला सी पल पल
जलाता हूँ मैं 
उम्मीदों की किरणें दिखेगी बेहतर 
ऐसे पुल क्यों बनाता हूँ मैं 

हर पल कल कल 
अकेला हूँ मैं
झर झर हाला 
बहाता हूँ मैं 
बिंदु वही है 
शून्य के जैसा 
शून्य वही है 
सुराखों के जैसा 
सुराखों की दरारें मिटाता हूँ मैं 
गेहरी और गहन है 
अटल और विरल है 
बहुत ही कटु है 
फिर भी वो कहानी सुनाता हूँ मैं 

हर पल कल कल 
अकेला हूँ मैं
झर झर हाला 
बहाता हूँ मैं
बरस के तो हलके
होते हैं बादल 
बादल से हलके 
होते हैं वो जल 
जल से लथ पथ 
वो कागज़ के पुर्ज़े 
रोज़ उठ उठ के जलाता हूँ मैं 
जल के भी जो
ना होते हैं ठंडे 
तर्पण कहाँ से 
करूँ उनको जल मैं 
सुलग रहे हैं अब भी कहीं जो 
अर्पण क्यों कर दूँ तुम्हे मैं 

हर पल कल कल 
अकेला हूँ मैं
झर झर हाला 
बहाता हूँ मैं...







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